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फिल्म- मैदान
निर्देशक – अमित रवीन्द्रनाथ शर्मा
निर्माता – बोनी कपूर
कालाकार- अज्य देवगन, प्रियामणि ,गजराज राव,चैतन्य शर्मा,सुशांत वेदांडे और अन्य
प्लेटफार्म- सिनेमाघर
रेटिंग- साढ़े तीन
फुटबॉल दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल माना जाता है, लेकिन इस खेल में विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए भारत को अभी लम्बा संघर्ष करना है, लेकिन एक वक्त था जब भारत विश्व में फुटबॉल में भी अपनी खास पहचान बनाने में कामयाब रहा था. यह बात है 1952 से 1962 की, जिसे भारतीय फुटबॉल का स्वर्णिम काल भी कहा जाता है. इस कालखंड को कोच सैयद अब्दुल रहीम ने अपने हौसले, जोश और जुनून से लिखा था. ये त्रासदी है कि उनके बारे में हम नहीं जानते थे ,इसके लिए फिल्म मैदान की पूरी टीम बधाई की पात्र है. जो इस गुमनाम नायक को फिर से जीवंत कर दिया. जिसकी योगदान की कहानी सभी को जाननी चाहिए. प्रेरणादायी यह कहानी सिनेमा के लिहाज से भी एक अच्छी फिल्म बनी हैं. स्पोर्ट्स के साथ – साथ इमोशन का अच्छा बैलेंस बनाया गया है. जो आपके चेहरे पर मुस्कान बिखेरने के साथ इमोशनल भी कर जाता है. अजय देवगन की कमाल की अदाकारी इस फिल्म को मस्ट वॉच फिल्म की श्रेणी में भी शामिल कर जाती है.
रहीम के जुनून और भारतीय फुटबॉल के स्वर्णिम काल की है कहानी
फुटबॉल के स्वर्णिम काल की इस कहानी की शुरुआत 1952 के ओलंपिक में भारत की हार से होती है. जहां भारतीय खिलाड़ी नंगे पैर अंतर्राष्ट्रीय मैच खेल रहे थे और विरोधी टीम के सामने टिक नहीं पाये. हार का जिम्मेदार कोच सैयद अब्दुल रहीम ( अजय देवगन) को ठहराया जाता है. फुटबॉल फेडरेशन की मीटिंग में सैयद कहता है कि अगर हार की ज़िम्मेदारी उसकी है तो खिलाड़ियों को चुनने की जिम्मेदारी भी उसकी पूरी हो. वह एक बेहतरीन फुटबॉल टीम बनाने का प्रस्ताव रखता है और उसके लिए लिए वह वक्त मांगता है. जिसके बाद शुरू होती है भारत के कोने – कोने से खिलाड़ियों को खोजने की जर्नी ,जिसमें सड़क से भी एक फुटबॉल के स्टार को चुना जाता है. उम्दा कोच और बेहतरीन खिलाड़ियों के बावजूद भारतीय फुटबॉल टीम की राह आसान नहीं है क्योंकि फुटबॉल फेडरेशन के शुभांकर और उस वक्त के टॉप स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट रॉय चौधरी ( गजराज राव) सैयद को पसंद नहीं करते हैं. प्रांतवाद और धर्म की पट्टी ने उन्हें अंधा कर दिया है. उन्हें नहीं दिख रहा है कि सैयद का सपना दुनिया के सामने फुटबॉल के मैदान में तिरंगे को फहराने का है. वे इसकी राह में रोड़ा बनाते जाते हैं ,लेकिन सैयद हर रोड़े को पारकर अपने सपने तक पहुंचता है. किस तरह से सैयद और उनकी टीम एशियन गेम में भारत का पहला फुटबॉल स्वर्ण पदक जीतती है,जो कारनामा आज तक भारतीय फुटबॉल टीम नहीं यह फिल्म उसी की जर्नी है. फिल्म में हम सैयद की निजी जिंदगी में आनेवाले मुसीबतों से भी हम रूबरू होते हैं.