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कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकते हैं मल्लिकार्जुन खरगे, बीजेपी के लिए बन सकते बड़ी मुसीबत!

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राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस के लिए उपयोगी साबित हुए हैं. तीन प्रमुख प्रदेशों में से दो में कांग्रेस की जीत में खरगे की भूमिका अहम कही जाती है. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत खरगे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के बाद मिली है. ऐसे में कहा जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष की दलितों में बढ़ रही लोकप्रियता पार्टी के लिए विधानसभा चुनाव ही नहीं बल्कि आगामी लोकसभा चुनाव में भी वरदान साबित होने वाली है. नौ प्रदेशों में विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव आने वाले 9 महीनों के दरमियान होने हैं और इन चुनावों में खरगे कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकते हैं. मल्लिकार्जुन खरगे दलित समुदाय से आते हैं. दलितों में कांशीराम और रामविलास पासवान जैसे नेताओं के निधन के बाद राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेताओं का अभाव महसूस किया जा रहा है. प्रकाश आंबेडकर हों या रामदास अठावले या फिर मायावती, इनकी स्वीकार्यता एक सीमा में सीमित रह गई है. मायावती विशेष तौर पर अपनी निष्क्रियता की वजह से यूपी में भी प्रभाव खोती दिख रही हैं. इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर मल्लिकार्जुन खरगे दलितों में तेजी से प्रभाव बनाते महसूस किए जा रहे हैं. बीजेपी की नीतियों के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक बुलंदी से आवाज उठाने की वजह से खरगे खूब सूर्खियां बटोर रहे हैं. खरगे के दलित होने की वजह से बीजेपी उनकी बातों का जवाब सधे हुए शब्दों में देती दिखाई पड़ती है. पीएम पर हमले को ओबीसी के सम्मान से जोड़ने वाली बीजेपी, खरगे के दलित होने का मतलब बखूबी समझती है. इसलिए खरगे के जवाब में बीजेपी डिंफेंसिव होने को मजबूर दिखाई पड़ती है.

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कांग्रेस खरगे को आगे कर एक तीर से साध रही कई निशाने

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दरअसल बीजेपी जानती है कि दलितों में सेंधमारी कर पाने में बहुत हद तक कई राज्यों में कामयाब रही पार्टी के लिए खरगे के खिलाफ एक बयान मुसीबत की घंटी बन सकता है. इसलिए दलित नेता पर नपे तुले शब्दों में जवाब देने में बीजेपी अपनी भलाई समझती है. वहीं कांग्रेस खरगे को आगे कर एक तीर से कई निशाने साधने में जुटी हुई है. गुजरात के विधानसभा चुनाव में भी खरगे ने पीएम मोदी की तुलना रावण से कर दी थी. वहीं कर्नाटक चुनाव में जहरीले सांप से, लेकिन बीजेपी हमेशा खरगे पर डायरेक्ट हमले से बचती दिखी है. कांग्रेस इन दिनों खरगे का इस्तेमाल बीजेपी विरोधी मतों को गोलबंद करने के लिए बखूबी कर रही है. खरगे संसद हो या सड़क, बीजेपी को मणिपुर प्रकरण से लेकर महंगाई, बेरोजगारी और विदेश नीति पर जोरदार तरीके से घेरकर राष्ट्रीय फलक पर मजबूत उपस्थिति पेश कर रहे हैं. कांग्रेस की रणनीति अपने कोर वोट बैंक को मजबूती से पकड़ने की है और खरगे की बढ़ती सक्रियता ने कांग्रेस की उम्मीदों में पंख लगा दिए हैं. कांग्रेस हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में दलितों के बीच मजबूत पकड़ बनाने में सफल रही है. उसको भरोसा है कि पार्टी नेता खरगे की दमदार मौजूदगी और आक्रामक रुख से मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ सहित तेलांगना में भी भारी सफलता मिल सकेगी. कांग्रेस दलित नेता खरगे का लाभ राष्ट्रीय फलक पर उठाने की रणनीति पर काम कर रही है. माना जा रहा है कि उनके विरोध में विपक्षी पार्टियां दमदार नेता उतार पाने में विफल रहेंगी और इसका लाभ कांग्रेस को भरपूर मिलेगा.

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दलित राजनीति पर कांग्रेस की मजबूत पकड़ की संभावना क्यों बढ़ी?

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साल 2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम में कांग्रेस 36 में से 21 दलितों के लिए रिजर्व सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रही है. बीजेपी इस चुनाव में महज 12 सीटों पर सिमट कर रह गई. साल 2018 के विधानसभा चुनाव में कहानी ठीक साल 2023 के परिणाम के उलट थी. कांग्रेस 12 सीटों पर सिमट गई थी और बीजेपी 22 सीटें जीतने में सफल रही थी. हिमाचल में कांग्रेस की सफलता में भी दलित वोटों का साथ अहम माना गया है. साल 2022 में दलित वोट का प्रतिशत बीजेपी के पक्ष में साल 2017 की तुलना में कम रहा है. लोकनीति-सीएसडीएस के एक चुनाव बाद किए गए सर्वेक्षण में बीजेपी के पक्ष में 34 फीसदी मत दिखाया गया है, जबकि साल 2017 में यह 47 फीसदी था. मतलब साफ है कि खरगे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने के बाद हिमाचल के दलितों में बीजेपी की पकड़ कमजोर पड़ी है और पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में बीजेपी साल 2022 में 13 फीसदी कम वोट पाकर सत्ता हासिल करने में विफल रही है.

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एमपी, राजस्थान, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ का समीकरण

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कांग्रेस की उम्मीद कर्नाटक और हिमाचल में सफलता हासिल करने के बाद एमपी, राजस्थान, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में कहीं ज्यादा बढ़ गई हैं. एमपी में 84 सीटें आदिवासी और दलित वर्ग के लिए आरक्षित हैं. इनमें एससी के लिए 35 और एसटी के लिए 47 सीटें रिजर्व हैं. इन सीटों के अलावा कई अन्य सीटों पर भी दलित और आदिवासी मिलकर चुनाव परिणाम को निर्णायक बनाने की क्षमता रखते हैं. राजस्थान का हाल भी कमोबेश यही है. यहां 59 में से 34 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं. राज्य में दलितों की आबादी 18 फीसदी बताई जाती है. बीजेपी साल 2008 से राजस्थान में ज्यादा प्रभावी दिखी है और 2019 के लोकसभा चुनाव में 59 फीसदी दलितों का वोट पाने में सफल रही है. जाहिर है इस चुनाव में कांग्रेस खरगे को मजबूती से पेश करती है तो खरगे की मौजूदगी अलग सियासी पटकथा लिखने की ताकत रखती है, ऐसा माना जा रहा है. तेलंगाना में भी कांग्रेस बीआरएस के खिलाफ खरगे को आगे रख सियासी फायदा भरपूर उठाने की तैयारी में है. तेलंगाना में दलितों की आबादी 30 फीसदी से अधिक बताई जा रही है. यही नहीं कांग्रेस यूपी जैसे सूबे में भी 22 फीसदी दलित आबादी में सेंधमारी की सोच रही है. यहां जाटव मतदाताओं में मायावती अभी भारी हैं, लेकिन 45 फीसदी गैरजाटव बीजेपी के पक्ष में मतदान पिछले कुछ चुनाव से करने लगे हैं. कांग्रेस की नजर पहले इन्हीं गैरजाटव मतदाताओं पर है.

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दलित और मुस्लिम कोर वोट बैंक को मजबूत करने में जुटी कांग्रेस

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कांग्रेस की सोच दलितों और मुसलमानों को पहले साधकर मजबूत होने की है. इसकी बानगी कर्नाटक और हिमाचल में देखी जा सकती है. कांग्रेस मनमोहन सिंह को पीएम के रूप में पेश कर पहले अल्पसंख्यक को पीएम बनाने का क्रेडिट ले चुकी है. वहीं बीजेपी की काट में दलित नेता पर दांव खेल सकती है. वैसे भी बीजेपी द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर आदिवासी कार्ड खेल चुकी है इसलिए कांग्रेस 22 फीसदी दलितों को रिझाने के लिए नया दांव खेल सकती है. कर्नाटक में दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों को साधकर राजनीति करने वाले सिद्धारमैया के हाथों बागडोर सौंपने के पीछे कांग्रेस की यही सोच है. कांग्रेस मानती है कि कर्नाटक के चुनाव के बाद मुस्लिम मतदाता कांग्रेस की तरफ बड़ी उम्मीद की निगाहों से देख रहे हैं. इसलिए खरगे नाम के तुरुप के इक्के का इस्तेमाल दक्षिण ही नहीं बल्कि उत्तर के राज्यों में भी कर विरोधियों और घटकदलों को साधने के लिए खरगे को आगे किया जा सकता है.

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‘बिहार-यूपी में भी खरगे दलितों के बीच लोकप्रिय होते दिख रहे’

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एनडीए के एक बड़े नेता के मुताबिक, बिहार सहित उत्तर प्रदेश में भी खरगे दलितों के बीच लोकप्रिय होते दिख रहे हैं. एनडीए के नेता कहते हैं कि कांग्रेस वंशवाद की राजनीति से अलग हटकर अगर खरगे को पीएम के रूप में पेश करती है तो उत्तर भारत में भी कहानी पिछले दो लोकसभा चुनाव से अलग नजर आ सकती है. जाहिर है दक्षिण भारत में भी दलित नेता के तौर पर मजबूती के साथ उभरने वाले मल्लिकार्जुन खरगे जगजीवन राम की तरह कांग्रेस में बड़े दलित नेता की तरह कामयाब हो सकते हैं. वैसे भी कांशीराम और रामविलास पासवान के निधन और मायावती की निष्क्रियता के बाद उत्तर भारत में दलित राजनीति के लिए बड़ा स्पेस खाली नजर आ रहा है. कहा जा रहा है साल 2004 और 2013 में सीएम के पद से चूकने वाले मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस की तरफ से पीएम के उपयुक्त उम्मीदवार हैं. दलित नेता होने की वजह से कांग्रेस में दलितों की वापसी उनके जरिए हो सकती है. कांग्रेस अपने कोर वोट बैंक की तरफ लौटना चाह रही है.

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