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नेताओं की वादाखिलाफी की आदत अब आम हो गई है. चुनावों के दौरान किये जाने वाले वादे तो यों भी, कहा जाता है कि, पूरे करने के लिए नहीं होते. लेकिन आजादी के फौरन बाद के दशकों में ऐसा नहीं था.चुनावों के दौरान नेता जो वादे करते, उन्हें याद भी रखते थे और निभाते भी थे. देश के पहले प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू ने 1962 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की बाराबंकी लोकसभा सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए वोट मांगते हुए किया गया एक वादा मतदाताओं द्वारा उनकी अनसुनी कर उनके प्रत्याशी को हरा देने के बावजूद निभाया था.
उस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी हुसैन कामिल किदवई सोशलिस्ट पार्टी के नेता रामसेवक यादव से कड़े संघर्ष में फंसे थे.उनकी मांग पर पं नेहरू वोट मांगने बाराबंकी आये तो उसके रामनगर वाइस पैवेलियन मैदान (जहां अब पुलिस लाइन है) में हुई उनकी सभा में भारी जनसैलाब उमड़ा. इस कदर कि मैदान में तिल रखने की भी जगह नहीं बची.
सभा में कुछ छात्रों ने उनसे बारांबकी में एक डिग्री कालेज की स्थापना कराने की मांग की और बताया कि उसके अभाव में उन्हें उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ जाना पड़ता है. इन छात्रों ने सभा के बाद उनसे मिलकर फिर अपनी मांग दोहराई तो उन्होंने उनसे उनकी मांग पूरी करने की हामी भर ली. फिर अपने साथ बैठे उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त से कहा कि वे चुनाव के फौरन बाद डिग्री कालेज स्थापना की प्रकिया आरंभ करा दें. लेकिन मतगणना में हुसैन कामिल किदवई रामसेवक यादव के मुकाबले पांच सौ वोटों से हार गये तो डिग्री कालेज की मांग करने वाले छात्रों को लगा कि अब नेहरू अपना वादा नहीं ही निभायेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नेहरू इस बाबत चंद्रभानु गुप्त को तब तक याद दिलाते रहे, जब तक डिग्री कालेज स्थापित नहीं हो गया. गुप्त को एक पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि लोगों में यह संदेश कतई नहीं जाना चाहिए कि हमारा प्रत्याशी हार गया तो हम अपना वादा निभाने में रुचि नहीं ले रहे. 27 मई, 1964 को नेहरू का निधन हुआ तो कृतज्ञ छात्रों की मांग पर उस कालेज के साथ उनका नाम जोड़ दिया गया और अब वह जवाहरलाल नेहरू स्मारक पीजी काॅलेज कहलाता है.