रिपोर्ट टाइम्स।
1937 में छपरौली से पहली बार विधायक चुने गए चौधरी चरण सिंह की पहचान एक सख्त प्रशासक की थी. उनकी शख्सियत में विरोधाभास भी भरपूर थे. पटेल के अलावा किसी को नेता नहीं माना. सहकारी खेती के सवाल पर नागपुर कांग्रेस में पंडित नेहरू को सीधी चुनौती दे दी, लेकिन कांग्रेस छोड़ने के लिए 1967 तक इंतजार किया. इस साल कुछ अन्य विधायकों के साथ पाला बदलकर प्रदेश की पहली गैरकांग्रेसी सरकार की उन्होंने अगुवाई की. साल भर से कम समय में इस सरकार का पतन हुआ. 1970 में एक बार फिर चरण सिंह मुख्यमंत्री बने, लेकिन इस बार कांग्रेस की मदद से. 1977 की जनता पार्टी सरकार में वह उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री बने. प्रधानमंत्री मोरारजी से उनकी तकरार जल्द ही शुरू हो गई.
उत्तर प्रदेश की पहली गैरकांग्रेसी सरकार की अगुवाई
1967 के चुनावों में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 425 सदस्यीय विधानसभा में 199 सीटें प्राप्त हुई थीं. बहुमत से 14 सीटें कम होने के बाद भी चंद्रभानु गुप्त की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार गठित हुई. राज्यपाल के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान चरण सिंह ने स्पीकर से बोलने की अनुमति हासिल की. पाला बदलते हुए उन्होंने कहा, “राजनीतिक पार्टियां जनता की सेवा का माध्यम हैं और यदि कोई पार्टी ऐसा नहीं कर पा रही तो इसके सच्चे सदस्यों का कर्तव्य बनता है कि उसे छोड़ दें.”
एक बार सरकार से बाहर हुए. फिर वापस हुए. प्रधानमंत्री पद उनका सपना था और इसके लिए उन्होंने उन इंदिरा-संजय का साथ किया, जिनके विरोध का नेतृत्व करते हुए उन्होंने जनता पार्टी को सत्ता में पहुंचाया था. कुर्सी की इस दौड़ में विरोधी चरण सिंह को चेयर सिंह के नाम से भी पुकारने लगे थे. वे इकलौते प्रधानंत्री रहे , जिन्होंने देश की सबसे महत्वपूर्ण कुर्सी पर रहते एक दिन भी संसद का सामना नहीं किया. जन्मदिन पर उनके राजनीतिक सफर पर एक नजर.
विपक्ष के संशोधन के पक्ष में 215 और सरकार के पक्ष में 198 वोट पड़े. 3 अप्रैल 1967 को चरण सिंह प्रदेश की पहली गैरकांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री बने. इस सरकार में सोशलिस्ट और कम्युनिस्टों के साथ जनसंघ भी शामिल थी. सरकार अल्पजीवी साबित हुई. 5 जनवरी 1968 को संसोपा और कुछ अन्य दलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. 17 फरवरी 1968 को विधानसभा भंग करने की सिफारिश के साथ चरण सिंह ने त्यागपत्र दे दिया.
लोकसभा में प्रवेश की पहली कोशिश नाकाम
चरण सिंह के अगले कदम केंद्र की राजनीति की ओर थे. हालांकि 1971 में वे खुद छपरौली सीट पर कांग्रेस समर्थित सी. पी.आई. के विजय पाल सिंह से लोकसभा का चुनाव हार गए. इस चुनाव में उनकी पार्टी भारतीय क्रांतिदल 9 राज्यों की 97 सीटों में सिर्फ एक सीट अलीगढ़ में जीत सकी थी. 1974 में उन्होंने अपनी पार्टी भारतीय क्रांति दल के संसोपा, स्वतंत्र पार्टी और उत्कल कांग्रेस के साथ विलय से एक नई पार्टी भारतीय लोकदल का गठन किया. इमरजेंसी में वे जेल भी गए. छूटने के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर अपने लंबे भाषण में उन्होंने इमरजेंसी और इंदिरा सरकार की ज्यादतियों की तीखी आलोचना की. परिणामों के लिए सचेत करते हुए उन्होंने कांग्रेस को चेतावनी दी थी कि बॉयलर में विस्फोट जरूर होगा.
अपनी सरकार को बताया नपुंसक
28 जून 1978 को चौधरी साहब के एक बयान ने सरकार और पार्टी ने भूचाल ला दिया. इस बयान में उन्होंने कहा था,’ आपातकाल के कई पीड़ित मेरे पास आये और उन्होंने बार-बार प्रार्थना की कि न केवल श्रीमती गांधी को तुरंत गिरफ्तार किया जाए बल्कि चंडीगढ़ में उन्ही हालात में रखा जाए, जिनमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण को रखा गया था. कोई संदेह नही है कि यदि सरकार में हम इस सुझाव को मान लेते तो सैकड़ों आपातकाल पीड़ित माताएं इस समय दीवाली के रूप में उल्लास मनातीं.
निश्चित रूप से किसी दूसरे देश में इंदिरा गांधी की ऐतिहासिक न्यूरेमबर्ग ट्रायल के समान कार्रवाई का सामना करना पड़ता. इस असफलता से लोगों ने निष्कर्ष निकाला है कि हम सरकार के लोग नपुंसक हैं, जो देश का शासन नही चला सकते.’ अपनी ही सरकार को घेरने में जुटे चरण सिंह ने मार्च 1978 में 18 दिन के भीतर प्रधानमंत्री को संबोधित छह पत्र लिखे. उन्हें प्रेस को जारी करके सरकार की मुसीबत खूब बढ़ाई. मजबूर मोरारजी ने 1 जुलाई 1978 को मंत्रिमंडल से उन्हें विदा कर दिया.
दूसरी बार मुख्यमंत्री कांग्रेस की मदद से
उत्तर प्रदेश के 1969 के मध्यावधि चुनाव ने चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक ताकत में भारी इजाफा किया. उस दौर में गैरकांग्रेस वाद के जनक डॉक्टर लोहिया का दिया एक नारा “संसोपा ने बांधी गांठ; पिछड़े पाएं सौ में साठ” खूब गूंज रहा था. संसोपा भले इसका लाभ न पाई हो लेकिन चरण सिंह को इस चुनाव में पिछड़ों का काफी समर्थन मिला. उनकी पार्टी भारतीय क्रांतिदल 99 सीटें हासिल करके राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई. इस बार कांग्रेस बहुमत से सिर्फ दो सीटें पीछे थी.
चंद्रभानु गुप्त ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. लेकिन इसी साल कांग्रेस का ऐतिहासिक विभाजन हुआ. सिंडीकेट से जुड़े गुप्त अल्पमत में आ गए. 10 फरवरी 1970 को उनका इस्तीफा हुआ. मुख्यमंत्री की कुर्सी चरण सिंह की प्रतीक्षा में थी. इंदिरा गांधी समर्थक 120 विधायकों की मदद से 18 फरवरी 1970 को वे दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. पिछले मौके की ही तरह यह खिचड़ी सरकार भी अल्पजीवी रही. कांग्रेस के समर्थन वापसी के कारण चरण सिंह ने 1अक्टूबर 1970 को इस्तीफा दे दिया.
जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनने से रोका
1977 के चुनाव में यह जन विस्फोट उत्तर भारत में कांग्रेस के सफाए के तौर पर हुआ. इमरजेंसी की ज्यादतियों के खिलाफ जनता पार्टी के गठन में चरण सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका थी. जनता पार्टी के प्रत्याशी भारतीय लोकदल के चुनाव निशान हलधर किसान पर चुने गए. खुद चरण सिंह बागपत से जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे. प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए चरण सिंह भी इच्छुक थे लेकिन इसके लिए उन्हें अभी कुछ और दिन इंतजार करना था. पहले दौर में चौधरी साहब की चिट्ठी ने जगजीवन का रास्ता रोका. बात दीगर है कि मोरारजी भाई को प्रधानमंत्री बनाये जाने में मददगार चौधरी साहब सरकार में रहते बराबर उनसे टकराते रहे. इस सरकार में वे उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बने. अक्टूबर 1977 में इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी की चरण सिंह की जिद ने मोरारजी सरकार की काफी फजीहत की.
सच किया प्रधानमंत्री की कुर्सी का सपना
समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला 1975 में इमरजेंसी की वजह बना था. 1977 में रायबरेली में उन्होंने इंदिरा को चुनाव में भी पराजित किया था. लेकिन 1979 में वही राजनारायण किसी भी सूरत में मोरारजी सरकार को उखाड़ फेंकने की तैयारी में थे. इंदिरा गांधी और संजय गांधी भी इसी मिशन पर थे. राजनारायण माध्यम बने.
76 सांसदों के साथ सरकार और जनता पार्टी से अलग हुए. कांग्रेस सहित कई दलों की मदद से चौधरी साहब ने 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. वे उस शिखर पर पहुंच चुके थे, जो किसी राजनेता का सपना होता है. पर जिनकी मदद से वह इस मुकाम पर पहुंचे थे उनका काम जनता पार्टी की टूट और सरकार के पतन के साथ पूरा हो चुका था. 20 अगस्त तक चौधरी साहब को बहुमत साबित करना था. एक दिन पहले ही कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया. उनका इस्तीफा हुआ. देश के प्रधानमंत्रियों की सूची में उनका नाम है. बात अलग है कि प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें सदन का सामना करने का एक दिन भी अवसर नही मिला.
शक्ति प्रदर्शन के बूते सरकार में वापसी
आगे कांग्रेस नहीं बल्कि अपनी ही सरकार चरण सिंह के निशाने पर थी. अपने 76वें जन्मदिन पर 23 दिसम्बर 1978 को उन्होंने दिल्ली के बोट क्लब पर जबरदस्त शक्ति प्रदर्शन किया. रैली में किसानों का सैलाब उमड़ पड़ा. सिर्फ एक महीने के अंतराल पर अटल-आडवाणी की कोशिशों से 24 जनवरी 1979 को मोरारजी सरकार में उनकी वापसी हुई. इस बार उप प्रधान मंत्री पद के साथ वित्त मंत्रालय की उन पर जिम्मेदारी थी, लेकिन सुलह अस्थायी थी. चौधरी साहब की निगाह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थी. उस दौर में उनके हनुमान समाजवादी राज नारायण थे. मंत्रिमंडल से उनकी भी छुट्टी हो चुकी थी. मोरारजी किसी शर्त पर सरकार में राजनारायण की वापसी के लिए तैयार नहीं थे.
सिर्फ पटेल को नेता माना
बढ़ती उम्र के साथ चरण सिंह का आगे का राजनीतिक सफर ढलान पर रहा. 1980 में वे बागपत से दूसरी बार सांसद चुने गए. तब उनकी पार्टी के दलित मजदूर किसान पार्टी के 41 सांसद थे. 1984 में तीसरी बार संसद में उनके सहित पार्टी के सिर्फ तीन सांसद थे. गांधी जी में उनकी अगाध आस्था थी. सिर्फ सरदार पटेल को अपना नेता माना. नेहरू से उन्हें हमेशा शिकायत रही कि उन्हें गांव और गरीब किसानों-मजदूरों की समझ नहीं है. तमाम राजनीतिक व्यस्तता के बीच भी चरण सिंह कृषि, भूमि सुधारों और आर्थिक सवालों पर लगातार बोलते और लिखते रहे.
‘एबोलिशन ऑफ जमींदारी- टू आल्टरनेटिव्स, इकोनॉमिक नाइटमेयर ऑफ इंडिया और ‘भारत की आर्थिक नीति की गांधीवादी रूपरेखा’ सहित कई महत्वपूर्ण पुस्तकें उन्होंने लिखी. 25 नवम्बर 1985 को ब्रेन स्ट्रोक ने उन्हें चेतना शून्य कर दिया. 23 दिसंबर 1902 को जन्मे चरण सिंह का 29 मई 1987 को निधन हुआ. खासतौर पर किसानों के बीच चरण सिंह आज भी खूब याद किए जाते हैं. मोदी सरकार ने उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से भी अलंकृत किया.