पुण्यतिथि पर विशेष
-चन्द्रमौलि पचरंगिया
वर्तमान में कुश्ती का एक बड़ा क्रेज युवाओं में देखने को मिल रहा है। जहां ना केवल पुरुष बल्कि महिलाएं भी इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभाओं का लोहा मनवा रही हैं। लेकिन इस कुश्ती के वर्तमान स्वरूप तक पहुंचाने का अगर पूरी तरह श्रेय किसी को दिया जाए तो वो नाम होगा केवल और केवल गुरु हनुमान का। जी हां कुश्ती के अखाड़े की वो महान शख्सियत जिसने इस कुश्ती को विश्व में पुजा दिया। एक ऐसा दौर भी था जब लोग कुश्ती का अर्थ नहीं समझते थे। उस समय में सामने आया विजय पाल जिसने आजीवन विवाह नहीं किया और बस कुश्ती को ही अपना धर्म माना। जिसने कुश्ती को ही जीया और आखिरी पल तक कुश्ती के उत्थान की ही सोच दिमाग में रखते हुए इस दुनियां से विदा हुआ। वही विजयपाल आगे चलकर गुरु हनुमान बना। राजस्थान के झुंझुनू ज़िला के चिड़ावा तहसील में 1901 में गरीब परिवार में जन्मे गुरु हनुमान बचपन में बेहद कमजोर सेहत के थे। ऐसे में अक्सर ताकतवर बच्चे उनको छेड़ा करते थे। इसलिए उन्होंने बचपन में ही पहलवानी को अपनाया। । भारतीय मल्लयुद्ध के भगवान हनुमान से प्ररित होकर इन्होंने अपना नाम हनुमान रख लिया और ताउम्र ब्रह्मचारी रहने का प्रण कर लिया। उनके अनुसार उनकी शादी तो कुश्ती से ही हुई थी। ये बात कोई अतिश्योक्ति भी नहीं थी क्योंकि जितने पहलवान उनके सान्निध्य में आगे निकले है शायद किसी और गुरु को इतना सम्मान मिल पाया है। कुश्ती के प्रति उनकी लगन को देखकर भारत के मशहूर उद्योगपति कृष्णकुमार बिड़ला ने उन्हें दिल्ली में अखाड़े के लिये जमीन दान में दे दी। 1940 में वे स्वतन्त्रता संग्राम में भी शामिल हुए। 1947 में भारत विभाजन के समय पाकिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थियों की उन्होंने सेवा और सहायता की। 1947के बाद गुरु हनुमान अखाड़ा दिल्ली में पहलवानों का मन्दिर हो गया। 1983 में उनको पद्मश्री से सम्मानित किया गया। वहीं इसी योगदान के चलते 1988 में द्रोणाचार्य अवार्ड से भी गुरु हनुमान को विभूषित किया गया। गुरु हनुमान ने जब यह देखा कि प्राय: सभी पहलवानों को बुढ़ापे में आर्थिक तंगी होती ही है तो उन्होंने सरकार से पहलवानों को रोजगार देने के लिये सिफारिश भी की। जिसके परिणामस्वरुप आज अनेकों राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतने वाले पहलवानों को भारतीय रेलवे में भर्ती कर लिया जाता है। इस तरह उन्होंने हमेशा ही अपने शिष्यों की सहायता अपने बच्चों के समान की। उनका रहन सहन बिलकुल गांव वालों की तरह था। उन्होंने सम्पूर्ण जीवन में धोती कुरते के अतिरिक्त कुछ और पहना ही नहीं। गुरु हनुमान सुबह साढ़े तीन से चार बजे के बीच उठ जाते थे। उठने के बाद वे प्रतिदिन व्यायाम करते थे। एक पत्रकार एक बार उनके साथ थे। अचानक से सुबह चार बजे पत्रकार का बैड हिला। देखा तो गुरु हनुमान उनके बेड को पकड़ कर बैठक लगा रहे थे। इसके बाद ईंट को डंबल की तरह उठाए हुए कसरत कर रहे थे। उस समय गुरु हनुमान 88 बरस के रहे होंगे। अखाड़े के चीफ कोच महासिंह राव से जब पत्रकार ने इस बारे में बात की, तो उन्होंने बताया कि गुरुजी नियमित रूप से अखाड़े में पहलवानों के साथ कसरत करते हैं। कुश्ती के कारगर गुर सिखाते हैं। भारतीय स्टाइल की कुश्ती के वे माहिर थे। उन्होंने भारतीय स्टाइल और अन्तराष्ट्रीय स्टाइल दोनों प्रकार की कुश्ती-शैलियों का आपस में योग कराकर अनेकों एशियाई चैम्पियन भारतवर्ष को दिए। पहलवानों को कुश्ती के गुर सिखाने के लिये उनकी लाठी कुश्ती के अखाड़े में काफी मशहूर थी। इसी लाठी के चलते सतपाल, करतार सिंह, 1972 के ओलम्पियन प्रेमनाथ, सैफ विजेता वीरेन्दर ठाकरान (धीरज पहलवान), सुभाष पहलवान, हंसराम पहलवान जैसे अनगिनत पहलवान कुश्ती की मिसाल बने। ये उनकी लाठी का ही कमाल था जो अखाड़े के पहलवानों को 4 बजे ही कसरत करने के लिये जगा देती थी। उनके अखाड़े में रहकर खिलाडी केवल पहलवानी ही नहीं बल्कि ब्रह्मचर्य, आत्मनिर्भरता और शाकाहार की ताकत भी सीखते थे। अपने घर आने वालो को भी वे चाय के स्थान पर बादाम की लस्सी पिलाते थे। उनके शिष्य महाबली सतपाल छत्रसाल स्टेडियम में पहलवानों को अत्याधुनिक तरीके से मैट पर प्रशिक्षण देते हैं। इसी का परिणाम है कि उनके शिष्य पहलवानों में सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त एवं नरसिंह यादव जैसे पहलवान राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन कर चुके हैं। गुरु हनुमान की लंबी उम्र का राज उनकी डेली एक्सरसाइज और शाकाहारी डाइट रहा है। ऐसी आदर्श हस्तियां बड़ी मुश्किल से मिलती हैं। वह अनुशासनप्रिय इंसान थे। पहलवानों को पूरी तरह कुश्ती के प्रति समर्पित देखना चाहते थे। एक दिन की बात है, गुरुजी अखाड़े पर एक पहलवान की धुनाई कर रहे थे। जब मैंने इसके बारे में दूसरे पहलवानों से पूछा कि इसे दंड क्यों दिया जा रहा है? तक मुझे बताया गया कि चोरी से यह पहलवान अखाड़े से सिनेमा देखने चला गया था। एक ओर गुरु हनुमान परशुराम की तरह गुस्सा करते थे, वहीं हास्यस्पद बातें कर अपने कोमल हृदय का सबूत भी देते थे। उन्होंने जीते जी अखाड़ों में अपनी अष्ठ धातु की मूर्ति लगवा दी। एक दिन की बात है कि अखाड़े के बाहर चारपाई पर बैठे थे। कुछ बच्चे आए उन्होंने गुरुजी से पूछा कि बाबा आप तो ऊपर चले गए थे? पीछे अखाड़े में उनकी अष्टधातु की मूर्ति लगी हुई है। गुरुजी ने बच्चों से हंसते हुए कहा कि मैं ऊपर से एक महीने की छुट्टी लेकर आया हूं। वे अक्सर कहा करते थे कि वैसे तो उनकी शादी कुश्ती से हो चुकी है। लेकिन 100 बरस की उम्र में वे दूसरी शादी करेंगे। पचास साल की उम्र में उन्होंने फ्रांस की एक महिला मित्र को उपहार में दातों का एक बीड़ा भेजा और सौ साल का होने पर वे शादी करेंगे। लेकिन विधाता को कुछ और ही मंजूर था। भारतीय कुश्ती को समर्पित गुरु हनुमान की 99 बरस की उम्र में 24 मई, 1999 को मेरठ के पास हरिद्वार जाते समय कार एक्सिडेंट में मौत हो गई। गुरु हनुमान एक गुरु ही नहीं बल्कि अपने शिष्यों के लिए पिता तुल्य थे। कुश्ती का जितना सूक्ष्म ज्ञान उन्हें था शायद ही किसी को हो! गुरु हनुमान ने जब ये देखा की उनके पहलवानों को बुढ़ापे में आर्थिक तंगी होती है तो उन्होंने सरकार से पहलवानों के लिए रोज़गार के लिए सिफारिश की परिणामस्वरूप आज बहुत से राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतने वाले पहलवानों को भारतीय रेलवे में हाथों हाथ लिया जाता है। इस तरह उन्होंने हमेशा अपने शिष्यों की सहायता अपने बच्चो के समान की। उनका रहन सहन बिल्कुल गाँव वालों की तरह ही था। उन्होंने अपने जीवन के तमाम वर्ष एक धोती कुरते में ही गुजर दिए। आज भी चिड़ावा से पिलानी जाने वाले रास्ते पर डीएसपी ऑफिस के पास स्थित गुरु हनुमान की कर्मस्थली गुरु हनुमान अखाड़ा में खड़ी गुरु हनुमान की कांस्य प्रतिमा हर कुश्ती के खिलाड़ी को आगे बढ़ने और हर व्यक्ति को जिंदगी को सादा जीवन और उच्च विचार के सिद्धांत के साथ जीने की प्रेरणा देती है। सौभाग्यशाली हूं कि मैंने खुद उस शख्सियत को देखा है और पिताजी के सानिध्य में उनसे मिलने और बात करने का एक छोटा सा अवसर मुझे भी मिला। कुश्ती के पितामह को शत-शत नमन।