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सचिन पायलट का सियासी जहाज़ फिलहाल उसी भंवर में फंसता नज़र आ रहा है, जो उन्होंने कभी गहलोत के लिए तैयार किया था

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जयपुर: सियासत में संकल्प बनते, बिगड़ते और नए स्वरूप लेते रहते हैं. लेकिन कुछ कसमें किरदार के साथ बंध जाती हैं. राजस्थान कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष, पूर्व डिप्टी सीएम, पूर्व केंद्रीय मंत्री और 5 फीसदी गुर्जरों के कद्दावर नेता के पास अब सच में न तो कुछ खोने के लिए बचा है और न ही कुछ बड़ा पाने की बड़ी उम्मीद. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ख़िलाफ़ मनमानी उड़ान भरने पर हाई कमान ने पायलट के सियासी विरोध वाले विमान की एक बार फिर इमरजेंसी लैंडिंग करवा दी है. CM गहलोत के साथ चल रहा घमासान एक बार फिर जब हाई कमान तक पहुंचा, तो फ़ैसला वही हुआ जिसकी उम्मीद गहलोत को थी, पायलट को नहीं. अब इसे अभयदान कहिये या गहलोत की सियासी जादूगरी पर गांधी परिवार का पुराना भरोसा, जिसके सामने पायलट का कोई दांव नहीं चल सका. इतना ही नहीं हाई कमान के सामने पेशी के बाद बाहर आते वक़्त गहलोत और पायलट दोनों की चाल मंद थी, लेकिन पायलट के चेहरे पर निराशा भी झलक रही थी. ज़ाहिर है, अब पायलट को अपनी वो कसम याद आती होगी, जिसके बाद से वो न तो ख़ुद चैन से रह सके हैं और न ही गहलोत सरकार को सुकून से रहने दिया.

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दिल्ली छोड़ राजस्थान के ‘रण’ में उलझते चले गए पायलट

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2013 तक केंद्र में कांग्रेस सरकार के मंत्री रहने वाले सचिन पायलट को लेकर अचानक ऐसा फ़ैसला हुआ, जिसके कई राजनीतिक मायने थे. 2013 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान कांग्रेस सिर्फ़ 21 सीटों तक सिमट गई थी. हाई कमान और पायलट के बीच डील हुई. राहुल गांधी के क़रीबी नेताओं में शुमार सचिन पायलट को युवा चेहरे के तौर पर जनवरी 2014 में राजस्थान कांग्रेस की कमान सौंपने का निर्णय हुआ. हालांकि, अशोक गहलोत इस फ़ैसले से ख़ुश नहीं थे, लेकिन कुल मिलाकर हाई कमान की नज़र में और राज्य में पार्टी का चेहरा वही थे. पायलट को राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष के साथ कांटों भरा ताज मिला. उन्हें BJP से ज़्यादा गहलोत के गुट से लड़ना पड़ा. 2014 से 2023 आ गया है, लेकिन पिछले 9 साल से राजस्थान के रण में वो लगातार उलझते चले जा रहे हैं. ये भी सच है कि ये लड़ाई एक दशक से वहीं पर अटकी हुई है. हालांकि, इस जंग के शुरुआती दौर में सचिन पायलट ने इमोश्नल होकर एक ऐसा फ़ैसला लिया था, जिस पर हर कोई हैरान था. उस फ़ैसले में पायलट ने एक तरह से अपनी सियासी साख दांव पर लगा दी थी.

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‘ताज’ के लिए ‘पगड़ी’ छोड़ने की क़सम खाई थी

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राजस्थान में आन बान और शान की पहचान रौबदार पगड़ी से होती है. ख़ासतौर पर यहां के गुर्जर समाज में हर शुभ मौक़े पर या यूं कहें कि किसी भी बड़े मौक़े पर सिर पर साफा लहराता है. ये परंपरा रजवाड़ों के दौर से अब तक कायम है. राजस्थान के मंच पर बड़े और अहम नेताओं को शानदार पगड़ी पहनाने का रिवाज़ भी है. राजस्थान की ये परंपरा राजनीतिक गलियारों तक बड़े नेताओं के सिर पर सजती रही है. 2014 में जब सचिन पायलट ने राजस्थान कांग्रेस की कमान संभाली थी, तब उन्होंने पार्टी की बुरी हालत देखने के बाद सौगंधी ली थी. जनवरी 2014 में उन्होंने कहा था कि जब तक वो कांग्रेस को राज्य में सत्ता में नहीं ला देंगे, तब तक पगड़ी या साफा नहीं पहनेंगे. उनका संदेश साफ था. उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी थी. युवा नेता के तौर पर पायलट ने कई जनसंपर्क अभियान चलाए. कई यात्राएं कीं और 2018 में कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आ गई. पायलट को उम्मीद थी कि जिस संकल्प के साथ पगड़ी छोड़ी थी, उसके पूरा होने के बाद अब सिर पर पगड़ी भी सजेगी और ताज भी. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. पायलट के नसीब और सिर पर आज भी सिर्फ़ पगड़ी ही है, ताज उनसे अभी दूर है.

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CM का ताज छूटा, तो पगड़ी पहनकर शपथ ली

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2014 से 2018 के बीच कई ऐसे मौके आए, जब गुर्जर नेता सचिन पायलट को राजनीतिक मंचों और सभाओं में साफा भेंट किया गया. कई मौक़ों पर पगड़ी पहनाने की कोशिशें हुईं, लेकिन हर बार अपनी सौगंध की लाज रखने के लिए उन्होंने पगड़ी से दूरी बनाए रखी. जब 2018 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई, तो पायलट का मुख्यमंत्री बनने का सपना टूट गया. फिर भी वो डिप्टी सीएम के तौर पर शपथ लेने के लिए साफा बांधकर पहुंचे. वो ये संदेश देना चाहते थे कि पार्टी को सत्ता में लाने का जो संकल्प लिया था, वो पूरा कर दिखाया है. इसलिए, एक बार फिर वो पगड़ी पहनने को राज़ी हो गए हैं. हालांकि, हाई कमान की निगाहों ने शायद उनके संकल्प और सपने दोनों को नज़रअंदाज़ कर दिया. इसीलिए, खुली बग़ावत से लेकर जन संघर्ष यात्रा तक पायलट के तमाम बाग़ी तेवर के बावजूद हाई कमान ने इस बार भी पैचअप की शर्तें वही रखीं, जो पहले थीं. यानी पायलट को गहलोत सरकार के साथ मिलकर चलना होगा.

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पायलट ने दोबारा पगड़ी पहनी तो रिकॉर्ड भी बना डाला

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गुर्जरों की शान कहलाने वाली पगड़ी को लेकर पायलट का प्रेम अक्सर राजनीतिक मंचों पर नज़र आ चुका है. 2018 में कांग्रेस के सत्ता में लौटने के बाद कई मौकों पर सचिन पायलट ने खुले मंच से न केवल साफा बांधा, बल्कि पगड़ी बांधने के रिकार्ड भी बना दिए. हालांकि, ये भी उतना ही सच है कि पायलट ने सत्ता वापसी तक पगड़ी न पहनने की जो कसम खाई थी, उसमें ताज हासिल करने की ख़्वाहिश भी छिपी थी. लेकिन उन्हें पगड़ी छोड़कर पगड़ी पर ही लौटना पड़ा. अब जब एक बार फिर 2023 के विधानसभा चुनाव की तैयारियां चल रही हैं, तो पायलट इस बार चाहते हैं कि अब ताज की लड़ाई का फ़ैसला चुनाव से पहले ही हो जाए.

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पायलट के तेवर और बग़ावत का हाई कमान पर असर क्यों नहीं?

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सचिन पायलट 2018 से लगातार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पार्टी हाई कमान को न केवल तेवर दिखा रहे हैं, बल्कि खुले तौर पर कई बार बग़ावत भी कर चुके हैं. 2020 में पायलट ने जब गहलोत के खिलाफ पहली बार मोर्चा खोला था, तो उन्होंने दावा किया था कि करीब 30 विधायक उनके साथ हैं. इसके बाद रिसॉर्ट पॉलिटिक्स शुरू हुई, जिसे लेकर पायलट काफ़ी मुतमइन थे. लेकिन, हुआ ये कि 30 में से 22 विधायक ही उनके साथ मानेसर के रिसॉर्ट में जाकर बाग़ी तेवर दिखाने के लिए तैयार हुए. उसमें भी 19 विधायक ही पहुंचे. इनमें दो मौजूदा मंत्री विश्वेन्द्र सिंह और मुरारी लाल मीणा भी शामिल थे. इसके अलावा गहलोत सरकार में मंत्री रघु शर्मा, प्रताप खाचरियावास और अशोक चान्ना भी पायलट गुट के ही थे. रघु शर्मा को तो पायलट ने अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर लोकसभा उपचुनाव का टिकट भी दिलवाया था. बाद में वो फिर विधायक बन गए. हालांकि, ये तीनों अब पायलट का साथ छोड़ चुके हैं. यानी पायलट ने मानेसर से बग़ावत की जो महाभारत शुरू की थी, उसमें वो अपने सबसे भरोसेमंद और मज़बूत साथियों द्वारा छले गए.

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2023 की पदयात्रा में पायलट की पावर हुई ‘आधी’!

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अपने ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ जनसंघर्ष यात्रा शुरू करने वाले सचिन पायलट की बग़ावत की पावर इस बार आधी ही दिखी. यानी 2020 में जिस तरह वो 30 विधायकों के साथ का दावा कर रहे थे, वो इस बार 15 पर आ गया है. पायलट की पदयात्रा के अंतिम दिन जयपुर की सभा में गहलोत सरकार के 2 मौजूदा मंत्री, 15 विधायक, 14 पूर्व विधायक, 5 राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त 2 बोर्ड अध्यक्ष, 7 प्रदेश कांग्रेस पदाधिकारी, 10 जिला कांग्रेस अध्यक्ष, 17 विधानसभा और लोकसभा उम्मीदवारों के साथ छात्र नेता समेत कांग्रेस के कई प्रकोष्ठों से जुड़े नेता शामिल हुए. भले ही पायलट के पास अपनी पार्टी के विधायकों और कद्दावर नेताओं का समर्थन गहलोत के मुक़ाबले कम है, लेकिन राजस्थान की राजनीति में गुर्जर समाज के 5 फीसदी वोट बड़े बदलाव लाने के लिए काफ़ी हैं. क्योंकि, पायलट जिस गुर्जर समाज की रहनुमाई करते हैं, उसका असर क़रीब 40 विधानसभा सीटों पर है. राजस्थान के सवाई माधोपुर, जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा, राजसमंद, करौली, दौसा, टोंक, कोटा, बूंदी, झालावाड़, अलवर, चित्तौड़गढ़, झुंझुनूं और भरतपुर में गुर्जर समाज का वोट बैंक किसी की भी हार जीत को मुमकिन बनाने में सक्षम है. इस बार पायलट को हाई कमान से जिस तरह खाली हाथ लौटना पड़ा है, उसके बाद वो बग़ावत की राह पर बढ़ते हैं तो कांग्रेस उनसे हाथ छुड़ा सकती है और अगर पीछे हटते हैं, तो हाथ की लकीरों को निहारने के सिवा कोई चारा नहीं

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