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पूरा कश्मीर हासिल करते-करते क्यों रुक गई थी भारतीय सेना? अमित शाह ने नेहरू पर साधा निशाना

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कश्मीर फिर चर्चा में है. गृहमंत्री अमित शाह ने मंगलवार को जम्मू-कश्मीर पर दो नए संशोधन बिल पेश किए. शाह ने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर निशाना साधते हुए कहा, अगर उन्होंने सही फैसले लिए होते तो POK हमारा होता. इतिहास पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि एक ऐसी घटना भी थी जब भारतीय सेना पूरा कश्मीर हासिल करते-करते रुक गई थी. कबाइलियों की आड़ में पाकिस्तानी हमले के जवाब में आगे बढ़ती भारतीय सेना पूरा कश्मीर लेने की जगह बीच में क्यों रुक गई? ये सवाल पूछा था, मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर ने कश्मीर अभियान का नेतृत्व करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल कुलवंत सिंह से लड़ाई के कई वर्षों बाद. जनरल का जबाब था,”प्रधानमंत्री ने उन्हें सिर्फ उस इलाके तक जाने के लिए कहा था जहां कश्मीरी बोली जाती है. नेहरु पंजाबी भाषी इलाके (गुलाम कश्मीर) में जाने के इच्छुक नहीं थे. एक तरह से नेहरु की दिलचस्पी सिर्फ कश्मीर घाटी में थी.अपनी आत्मकथा एक जिंदगी काफी नहीं में नैयर ने लिखा, “अक्टूबर 1947 में लंदन में हुई कामनवेल्थ कॉन्फ्रेंस में नेहरू का दृष्टिकोण खुलकर सामने आया. उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा कि एक तरह से कश्मीर का बंटवारा हो गया है.”

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फिर भारत से जुड़े रहने का क्या मतलब ?

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दिलचस्प है कि हमेशा से अहिंसा के पक्षधर महात्मा गांधी ने भारत की इस सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया था. उन्होंने कहा था कि किसी समुदाय की रक्षा करने में अगर कायरता आड़े आ रही हो तो उसे बचाने के लिए लड़ाई का सहारा लेना कहीं बेहतर होगा. उधर पंडित नेहरु का कश्मीर से भावनात्मक लगाव था. शेख अब्दुल्ला की दोस्ती ने इसे और गाढ़ा किया. रियासत के भारत में विलय के बाद एक बड़े हिस्से के पाकिस्तान के कब्जे में जाने से नाराज राजा हरी सिंह ने 31 जनवरी 1948 को सरदार एक पत्र में लिखा, “कभी कभी मुझे लगता है कि मैंने भारतीय संघ से जो अधिग्रहण करार किया है, वो वापस ले लेना चाहिए. वैसे भी संघ ने अंतरिम तौर पर ही अधिग्रहण स्वीकार किया है और अगर भारत सरकार हमारा भूभाग पाकिस्तान से वापस नही ले सकती और अंततः सुरक्षा परिषद के निर्णय से सहमत होने जा रही तो फिर भारतीय संघ से जुड़े रहने से कोई लाभ नही. फिलहाल पाकिस्तान से बेहतर सम्बन्ध सम्भव हों, लेकिन उसका कोई अर्थ नही होगा, क्योंकि अंत में उसकी परिणित यह होनी है कि एक वंश खत्म हो जाएगा तथा रियासत से हिन्दू व सिख खत्म हो जाएंगे.”

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बिना तैयारी के सेना का वो विजय अभियान

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26 अक्तूबर 1947 को राजा हरी सिंह ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय का पत्र सौंपा था. उसके अगले ही दिन सौ नागरिक और सैन्य विमानों से सेना और हथियार कश्मीर भेजने का सिलसिला शुरु हो गया था. यह अभूतपूर्व सैन्य अभियान था, जिसकी कोई तैयारी नही थी. लेकिन भारतीय सेना ने अप्रतिम शौर्य का परिचय दिया. शुरुआती लड़ाई में ही यह साफ़ हो गया कि ये कबाइलियों की सामान्य घुसपैठ नहीं है. प्रशिक्षित शत्रु सेना का मुकाबला किया जाना है. चुनौती के मुताबिक ही दिल्ली से अतिरिक्त सैनिक और हथियार पहुंचते गए. बहादुर सैन्य अफसर के. एस. थिमैय्या, जो बाद में सेना प्रमुख बने, टैंकों को 11,575 फीट की ऊंचाई पर जोजिला तक ले गए. वह भी बर्फ़ीली सर्दियों में और जल्दी ही जीत हासिल करने में सफल रहे.

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कामयाबी क्यों रही अधूरी ?

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लेकिन इस सैन्य अभियान की पूर्ण कामयाबी को एक राजनीतिक फैसले ने अधूरा कर दिया. ये फैसला किसका था और क्यों लिया गया इस पर लगातार सवाल हुए हैं. सटीक जवाब सैन्य कमान की अगुवाई करने वाले ही दे सकते थे. कुलदीप नैयर ने कश्मीर अभियान का नेतृत्व करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल कुलवंत सिंह से लड़ाई के कई वर्षों बाद पूछा था कि आगे बढ़ती भारतीय सेना पूरा कश्मीर लेने से क्यों रुक गई? जनरल का जबाब था,”प्रधानमंत्री ने उन्हें सिर्फ उस इलाके तक जाने के लिए कहा था जहां कश्मीरी बोली जाती है . नेहरु पंजाबी भाषी इलाके (गुलाम कश्मीर) में जाने के इच्छुक नही थे. एक तरह से नेहरु की दिलचस्पी सिर्फ कश्मीर घाटी में थी. अक्टूबर 1947 में लन्दन में हुई कामनवेल्थ कॉन्फ्रेंस में उनका दृष्टिकोण खुलकर सामने आ गया था. उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि एक तरह से कश्मीर का बंटवारा हो गया है.

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राजा को पटेल तो नेहरू को शेख पर भरोसा

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शुरुआत में कश्मीर को लेकर उदासीन सरदार पटेल जूनागढ़ रियासत के पाकिस्तान में विलय को जिन्ना की मंजूरी के बाद तेजी से कश्मीर में सक्रिय हुए थे. राजा हरि सिंह की नेहरू से दूरियां तो पटेल से नजदीकी थी. पटेल पहले 28 अक्टूबर और फिर 2 दिसम्बर को कश्मीर पहुंचे. उन्होंने सेना के अफसरों-जवानों में जोश भरा. राजा और शेख अब्दुल्ला के बीच की तल्खी भी कम करने की कोशिश की. लेकिन नेहरु ने शेख़ अब्दुल्ला को कश्मीर के भविष्य की कुंजी माना. यह मानते हुए कि सरदार, शेख के साथ सही तरीके से काम नही कर पायेंगे, नेहरु ने कश्मीर का मामला अपने हाथ में ले लिया. अपनी सहायता के लिए नेहरु ने कश्मीर के पूर्व दीवान और संविधान विशेषज्ञ एन गोपाल स्वामी आयांगर को बिना विभाग के मंत्री के तौर पर कैबिनेट में शामिल किया. दिसम्बर 1947 के पहले पखवारे की गोपालस्वामी की दो कश्मीर यात्राओं की जानकारी नेहरु ने सरदार को दीं. पर आयांगर को लेकर नेहरु की योजना को समझने में सरदार चूक गए.

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कश्मीर सवाल पर खत्म हुई पटेल की भूमिका

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आयांगर ने पूर्वी पंजाब के प्रीमियर को एक तार भेजकर कश्मीर के लिए 150 वाहन भेजने को कहा. सरदार को यह उचित नही लगा. उन्होंने आयांगर को भविष्य में गृह मंत्रालय से पत्र व्यवहार के लिए कहा. खिन्न आयांगर ने कैबिनेट मंत्री के तौर पर पोस्ट ऑफिस की भूमिका निभाने से इनकार कर दिया. सरदार को अगर जानकारी रही होती तो यकीनन वह इस स्थिति से बचते. 23 दिसम्बर को सरदार ने उन्हें लिखा कि मैं अपना पत्र वापस लेता हूं. पर इस समय तक आयांगर अपना 22 दिसम्बर का पत्र प्रधानमंत्री को भेज चुके थे. पण्डित नेहरु ने सरदार के पत्र को काफी गम्भीरता से लिया. 23 दिसम्बर को उन्हें लिखा,” गोपालस्वामी आयांगर को कश्मीर की आन्तरिक स्थिति की जानकारी और अनुभव के कारण खासतौर पर , वहां के विषय में सहायता के लिए कहा गया है. उन्हें इसके लिए पूरी छूट देनी होगी. मैं समझने में विफल हूं कि इसमें गृह मंत्रालय बीच में कहां से आता है? सिवाय इसके कि उसे की जाने वाली कार्रवाई की जानकारी दी जाती रहे. यह सब मेरी पहल पर हो रहा है. ऐसा विषय जिसके लिए मैं जिम्मेदार हूं, उसे करने में मैं दख़ल नही चाहूंगा. मैं कहना चाहूंगा कि सहयोगी गोपालस्वामी के साथ ऐसा व्यवहार नही किया जाना चाहिए था. सरदार ने तुरन्त ही अपने हाथ से पंडित नेहरु को पत्र लिखा,”अभी दोपहर एक बजे आपका पत्र मिला और मैं आपको तुरन्त यह बताने को लिख रहा हूं. इसने मुझे पर्याप्त पीड़ा दी है… आपके पत्र से साफ है कि मुझे सरकार में आगे नही रहना चाहिए. इसलिए मैं त्यागपत्र दे रहा हूं. दूसरी ओर उसी दिन पंडित नेहरु ने फिर पत्र लिखकर सरदार से अफसोस जताया और अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी.उसी शाम सरदार ने महात्मा गांधी से भेंट हुई. गांधी की नेहरु से अलग से मुलाकात हुई. किसी का इस्तीफ़ा नही हुआ. पर सरदार की कश्मीर में भूमिका खत्म हो चुकी थी.

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नेहरू-शेख ने दिया 370 को अंतिम रूप

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नेहरु ने जम्मू व कश्मीर राज्य से सम्बन्धित विशेष प्रावधानों को शेख अब्दुल्ला के साथ बैठक कर अंतिम रुप दिया और संविधान सभा के माध्यम से उन प्रावधानों को आगे बढ़ाने का काम अपने मंत्री गोपालस्वामी आयंगर को सौंप दिया. पार्टी का बड़ा हिस्सा जम्मू व कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने के खिलाफ था और आयंगर को इसके लिए कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था. सरदार पटेल भी इसी राय के थे लेकिन उन्होंने नेहरू और गोपालस्वामी के निर्णयों में दखलंदाजी न करने के फैसले के तहत खामोशी अख्तियार रखी. 17 अक्तूबर 1949 को संविधान निर्माण प्रक्रिया के दौरान जम्मू -कश्मीर की विशेष स्थिति को लेकर अनुच्छेद 370 शामिल किया गया. उसी कड़ी में 1954 में 35 ए जुड़ा.

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नेहरू की सबसे बड़ी भूल

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1 जनवरी 1948 को कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने का नेहरू का फैसला उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल साबित हुई. इसका उन्हें जल्दी ही पछतावा हुआ. लॉर्ड माउंटबेटन की सलाह इस फैसले में निर्णायक बनी . विडम्बना यह कि नेहरू ने कश्मीर में अपनी बढ़ती फौजों को अपना भूभाग खाली करने से रोक दिया और संयुक्त राष्ट्र संघ से गुजारिश की कि पाकिस्तान के गैरकानूनी कब्जे में गए कश्मीर के उत्तरी हिस्से को खाली कराने में मदद करे. पाकिस्तान के प्रतिनिधि जफरुल्ला खां अपना पक्ष प्रभावशाली तरीके रखने में कामयाब रहे. उन्होंने कश्मीर समस्या को विभाजन और दंगो से जोड़ दिया. ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि बेकर ने पाकिस्तान का खुला समर्थन किया. दुखी नेहरू ने माउंटबेटन से कहा, “नियम कानूनों की जगह ताकत की राजनीति इस संगठन को चला रही है जो पूरी तौर पर अमेरिकी प्रभाव में है और जिनकी अंग्रेजों की तरह पाकिस्तान मुद्दे से कोई सहानुभूति नहीं है.”

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