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हिंसा के बाद बांग्लादेश पीएम शेख हसीना का इस्तीफा, देश छोड़ा: इंग्लैंड में रहेंगी शेख हसीना, दिल्ली से जल्द होंगी लंदन रवाना

बांग्लादेश की पीएम शेख हसीना ने आज, सोमवार, 5 अगस्त को अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। इस इस्तीफे के साथ ही बांग्लादेश में शेख हसीना का 15 साल का राज भी खत्म हो गया है। बांग्लादेश में इस समय आरक्षण मुद्दे पर चल रहा विवाद बहुत ज़्यादा बढ़ गया है और इस वजह से देशभर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। इन दंगों की वजह से 300 लोगों की मौत हो चुकी है। ऐसे में शेख हसीना पर इस्तीफा देने का दबाव बनाया जा रहा था और आज बांग्लादेश के आर्मी चीफ वकार-उज़-ज़मान ने भी शेख हसीना को पीएम पद से इस्तीफा देकर देश छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया था। ऐसे में शेख हसीना पीएम पद से इस्तीफा देकर अपनी बहन शेख रेहाना के साथ देश छोड़कर भारत आ गई हैं। लेकिन शेख हसीना भारत में शरण लेने नहीं आई हैं, बल्कि सिर्फ कुछ ही समय के लिए आई हैं।

दिल्ली से लंदन होंगी रवाना

शेख हसीना ढाका छोड़कर भारत आ गई हैं। गाज़ियाबाद के हिंडन एयरबेस पर शेख हसीना का विमान लैंड कर चुका है। यहाँ से उन्हें उनकी बहन के साथ दिल्ली ले जाया जाएगा। लेकिन शेख हसीना भारत में शरण नहीं रहेंगी। शेख हसीना इंग्लैंड में रहेंगी। दिल्ली से शेख हसीना अपनी बहन के साथ लंदन रवाना होंगी।

बांग्लादेश में होगा सैन्य शासन लागू

शेख हसीना के इस्तीफे के साथ ही बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ गई है। हालांकि जल्द ही देश में सैन्य शासन लागू होगा। ऐसे में बांग्लादेश में अब वकार-उज़-ज़मान के नेतृत्व में सेना का राज चलेगा।

1971 में पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश एक अलग देश बना, एक मुल्क के तौर पर बांग्लादेश की किस्मत पाकिस्तान से बेहतर तो रही लेकिन राजनीतिक हालात लगभग एक जैसे ही रहे. बांग्लादेश की आजादी से लेकर अब तक हुए चुनावों में से महज़ 4 चुनाव को ही स्वतंत्र और निष्पक्ष माना गया है. बांग्लादेश की सरकार अक्सर चुनावी हिंसा, विरोध और मतदान में धांधली के आरोपों में घिरती रही है. बांग्लादेश में बीते करीब एक महीने से जारी आरक्षण विरोधी प्रदर्शन कब खत्म होंगे इसे लेकर ठीक-ठीक कुछ कह पाना फिलहाल संभव नहीं है, हालांकि इन प्रदर्शनों ने प्रधानमंत्री शेख हसीना को सत्ता से बेदखल जरूर कर दिया है. देश में सेना ने कमान संभाल ली है और आर्मी चीफ ने अंतरिम सरकार का गठन कर देश चलाने की बात कही है. वहीं दूसरी ओर शेख हसीना को तख्तापलट की आहट के चलते एक फिर अपना मुल्क छोड़ना पड़ना है.

राजनीतिक अस्थिरता का शिकार बांग्लादेश

पाकिस्तान से अलग होने के बाद 7 मार्च 1973 को बांग्लादेश में पहली बार आम चुनाव हुए, बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले शेख मुजीबुर रहमान की अध्यक्षता में अवामी लीग ने चुनाव में एकतरफा जीत दर्ज की. देश में जनता की सबसे ज्यादा पसंदीदा पार्टी माने जाने के बावजूद आवामी लीग पर चुनाव में धांधली करने और विपक्षी नेताओं के अपहरण की साजिश के आरोप लगे.

आवामी लीग ने तब संसद की 300 सीटों में से 293 सीटें जीतीं, जो एकतरफा जीत थी. इस बड़ी जीत के साथ ही बांग्लादेश में निरंकुश शासन की शुरुआत हुई. 1974 में, प्रधानमंत्री मुजीबुर रहमान ने सभी विपक्षी दलों के साथ-साथ संसद से अधिकांश प्रेस सदस्यों पर प्रतिबंध लगा दिया, जिससे देश में एक तरह की तानाशाही की शुरुआत हो गई. हालांकि मुजीबुर रहमान अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके और 3 साल 13 दिन के बाद सेना ने तख्तापलट कर दिया.

आज़ादी के नायक को मारकर किया तख्तापलट

15 अगस्त 1975 को बांग्लादेशी सेना के कुछ जूनियर अधिकारियों ने शेख मुजीब के घर पर टैंक से हमला कर दिया. इस हमले में मुजीब सहित उनका परिवार और सुरक्षा स्टाफ मारे गए. सिर्फ उनकी दो बेटियां शेख हसीना और शेख रेहाना की जान बच पाई थी क्योंकि वो उस समय जर्मनी घूमने के लिए गई हुई थीं. पिता की हत्या के बाद शेख हसीना अपने परिवार के साथ भारत आईं, तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने उन्हें भारत में शरण दी, हालांकि उस समय भारत में आपातकाल लगा हुआ था. भारत में करीब 6 साल रहने के बाद 1981 में शेख हसीना अपने परिवार के साथ ढाका लौटी थीं जहां उनका जोरदार स्वागत हुआ था.

जियाउर रहमान ने बनाई नेशनलिस्ट पार्टी

1975 में जब मुजीबुर रहमान की हत्या कर दी गई तो अगले डेढ़ दशक तक बांग्लादेशी सेना ने सत्ता संभाली. 1978 और 1979 के बीच राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव पूर्व सेना प्रमुख जियाउर रहमान के नेतृत्व में हुए, उनकी नवगठित बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने भारी बहुमत हासिल किया था, तब आवामी लीग ने चुनाव में धांधली के आरोप लगाए थे. जियाउर्हमान के शासन के साथ ही बांग्लादेश में कई ऐसे तौर तरीकों की शुरुआत हुई जिसने देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर लंबे समय के लिए असर डाला.

एक और तख्तापलट, जियाउर रहमान की हत्या

वहीं साल 1981 में, जियाउर रहमान की हत्या के बाद, उनके डिप्टी अब्दुस सत्तार ने 15 नवंबर को आम चुनाव कराए. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने फिर से 65 प्रतिशत वोट के साथ जीत हासिल की. सेना प्रमुख रहे हुसैन मुहम्मद इरशाद ने 1982 में तख्तापलट करके सत्ता संभाली.वहीं 7 मई 1986 के संसदीय चुनाव और उसके बाद 15 अक्टूबर 1986 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी बहिष्कार के बावजूद उनकी पार्टी ने भारी बहुमत से जीत हासिल की. ​​हालांकि उन चुनाव में मतों के आंकड़ें बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का आरोप लगा था.

बांग्लादेश में विद्रोह का वो ‘स्वर्णिम काल’

1988 में हुसैन मुहम्मद इरशाद को सत्ता से हटाने की मांग को लेकर बांग्लादेश में एक बार फिर बड़े विरोध प्रदर्शन हुए, इसके परिणामस्वरूप 1990 का लोकप्रिय विद्रोह हुआ जिसने हुसैन इरशाद को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया. 27 फरवरी 1991 को बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और भावी राष्ट्रपति शहाबुद्दीन अहमद के नेतृत्व वाली कार्यवाहक सरकार के तहत सभी प्रमुख दलों ने चुनाव में हिस्सा लिया. चुनाव तटस्थ माने गए और जियाउर्रहमान की बीएनपी को मामूली जीत मिली. इस चुनाव में BNP ने 140 सीटों पर जीत दर्ज की थी वहीं अवामी लीग 88 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही.

पहली बार प्रधानमंत्री बनीं शेख हसीना

इसके बाद 1996 में हुए चुनावों का बांग्लादेश के लगभग सभी विपक्षी दलों ने बहिष्कार किया, चुनाव में बिना किसी प्रतिद्वंदी के BNP ने जीत तो हासिल की लेकिन उसकी सरकार महज़ 12 दिन ही चल पाई. 12 जून 1996 को बांग्लादेश में एक फिर चुनाव हुए, इस बार करीब 75 फीसदी मतदाताओं ने अपने अधिकार का इस्तेमाल किया और निष्पक्ष चुनाव माना गया. अपने पिता की खोई हुई विरासत को संभालने के लिए शेख हसीना ने लंबी राजनीतिक लड़ाई लड़ी, आखिरकार 1996 में वो पहली बार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनीं. उनकी अगुवाई में आवामी लीग ने 146 सीटें हासिल कीं वहीं विपक्षी पार्टी BNP ने 116 सीटें जीती थी.

शेख हसीना ने पूरे 5 साल सरकार चलाई, लेकिन साल 2001 में हुए चुनाव में उनकी पार्टी हार गई. BNP ने चुनाव में भारी मतों से जीत हासिल की और सरकार चलाई. लेकिन इसके बाद 2006 में होने वाले चुनाव तय समय पर नहीं हो पाए. करीब 2 साल तक बांग्लादेश राजनीतिक संकट के बीच घिरा रहा. इस दौरान हिंसा, दंगे और कई प्रदर्शन होते रहे. 2008 में राष्ट्रपति, इयाजुद्दीन अहमद ने जब बांग्लादेश में आपातकाल की घोषणा की तो सेना ने हस्तक्षेप किया और अवामी लीग ने विरोध में चुनावों से अपना नाम वापस ले लिया.

राजनीतिक संकट के बाद हसीना की वापसी

आखिरकार 29 दिसंबर 2008 को बांग्लादेश में एक बार फिर चुनाव हुए, जिसमें 80 प्रतिशत मतदान हुआ. इस बार अवामी लीग ने अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर एक ग्रैंड अलायंस बनाया और इसका नेतृत्व शेख हसीना ने किया. BNP का नेतृत्व एक बार फिर पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया ने किया.अवामी लीग के नेतृत्व में विपक्षी गठबंधन ने 48 फीसदी वोटों के साथ 230 सीटों के साथ बड़ी जीत हासिल की. जनवरी 2009 में एक बार फिर शेख हसीना बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनीं.

2006-2008 के राजनीतिक संकट के बाद, अवामी लीग ने 2011 में चुनावों की देखरेख के लिए कार्यवाहक सरकार की आवश्यकता को समाप्त करने का फैसला किया, क्योंकि शेख हसीना का मानना था कि 2006 में इसी के चलते चुनाव समय पर नहीं पाए थे. इस प्रावधान को हटाने के लिए संशोधन पारित किया गया. जिसका मुख्य विपक्षी दल BNP ने विरोध किया था. 5 जनवरी 2014 को हुए चुनावों से पहले बीएनपी नेता खालिदा जिया को घर में नजरबंद कर दिया गया था और अन्य विपक्षी सदस्यों के खिलाफ हिंसा की कई खबरें दर्ज की गईं. इस बार बीएनपी सहित कई विपक्षी दलों ने मतदान का बहिष्कार किया और शेख हसीना की अवामी लीग ने संसद में 234 सीटें जीतकर भारी जीत हासिल की. शेख हसीना रिकॉर्ड तीसरी बार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनीं.

करीब डेढ़ दशक से चुनाव जीत रही आवामी लीग

बांग्लादेश में साल 2018 में पहली बार EVM से चुनाव हुए, लेकिन बीएनपी और अन्य विपक्षी दलों ने एक बार फिर प्रधानमंत्री शेख हसीना पर आम चुनावों में धांधली करने का आरोप लगाया. हसीना सरकार ने चुनाव के दिन से पहले यह करते हुए मोबाइल इंटरनेट बंद कर दिया था कि वो चुनाव से जुड़ी फर्जी खबरें रोकना चाहती है. इस चुनाव में भी शेख हसीना के नेतृत्व में बने ग्रैंड अलायंस ने रिकॉर्ड जीत हासिल की और शेख हसीना प्रधानमंत्री बनीं.

इसके बाद बांग्लादेश में इस साल के शुरुआत में हुए चुनाव के दौरान भी हिंसा और प्रदर्शन देखे गए. शेख हसीना की पार्टी पर धांधली के आरोप लगे, विपक्षी दलों ने चुनाव का बहिष्कार किया और शेख हसीना की आवामी लीग ने आसानी से बहुमत हासिल कर लिया. शेख हसीना रिकॉर्ड पांचवीं बार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनीं. उधर कभी बांग्लादेश की प्रधानमंत्री रहीं खालिदा जिया और उनकी पार्टी BNP बीते करीब 2 दशक से देश में एक भी चुनाव नहीं जीत पाई, भ्रष्टाचार के आरोपों में सज़ा के बाद खालिदा जिया और उनकी पार्टी पर राजनीतिक संकट गहरा गया.

अब जबकि बांग्लादेश में राजनीतिक उथल-पुथल चरम पर है. आरक्षण की आग से जलते बांग्लादेश में शेख हसीना का विरोध इस कदर बढ़ा कि पांच बार की प्रधानमंत्री को आनन-फानन में देश छोड़कर भागना पड़ा. वहीं बांग्लादेश की कमान एक बार फिर सेना के हाथों में है, ऐसे में खालिदा जिया की पार्टी BNP के पास मौका है कि वो अपने आपको एक बार फिर बांग्लादेश की राजनीति में स्थापित करें और जनता का भरोसा जीतें. हालांकि आने वाले समय में देखना होगा कि बांग्लादेश में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कब होते हैं और जनता किस पार्टी पर भरोसा जताएगी.

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