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क्या ट्रंप के डॉलर से टक्कर ले रहा भारत और ब्रिक्स, कैसी है प्लानिंग?

रिपोर्ट टाइम्स।

संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सोमवार (20 जनवरी) को ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) देशों पर 100 फीसदी आयात शुल्क लगाने के अपने वादे को फिर से दोहरा दिया है. ट्रंप का कहना है कि अगर ब्रिक्स देश ग्लोबल ट्रेड में डॉलर के यूज में कटौती की दिशा में कोई कदम उठाते है तो उनकर 100 फीसदी टैरिफ लगाया जाएगा.

दिसंबर 2024 में, तत्कालीन राष्ट्रपति-चुनाव ट्रम्प ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था कि हमें इन देशों से एक प्रतिबद्धता की जरूरत है. वे देश न तो नई ब्रिक्स करेंसी बनाएंगे और न ही शक्तिशाली अमेरिकी डॉलर को बदलने के लिए किसी दूसरी करेंसी को सपोर्ट करेंगे. अन्यथा उन्हें 100 फीसदी टैरिफ का सामना करना पड़ेगा.

अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ऐसी चेतावनी क्यों दे रहे हैं? क्या ट्रंप को इस बात का डर सता रहा है कि ब्रिक्स देश डॉलर को टक्कर देने के लिए नई करेंसी लेकर आ रहे हैं? ट्रंप का डर यूं ही नहीं है. ब्रिक्स देशों की ओर से डॉलर को कम करने की कोशिश की जा चुकी है. चीन से लेकर रूस और भारत इसको लेकर कई तरह के प्रयास कर चुके हैं. आइए आपको भी बताते हैं आखिर ट्रंप का असल डर क्या है?

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क्या नई करेंसी की प्लानिंग कर रहा है ब्रिक्स?

दुनिया भर के देश वास्तव में अमेरिकी डॉलर के साथ-साथ अमेरिका के नेतृत्व वाले ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम पर से डिपेंडेंसी कम करने के बारे में विचार कर रहे हैं. अमेरिका द्वारा रूस को सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशन (स्विफ्ट) से बाहर करने के बाद इस बारे में नए सिरे से विचार किया गया है, जो इंटरनेशनल फाइनेंशियल ट्रांजेक्शन के लिए महत्वपूर्ण है.

ईरान को 2012 में SWIFT से अलग कर दिया गया था, एक ऐसा कदम जिसे 2015 में तेहरान को वार्ता की मेज पर लाने में एक भूमिका के रूप में देखा गया था. 2018 में पहले ट्रम्प प्रशासन ने ईरान पर तेल और वित्तीय प्रतिबंध फिर से लगाने के बाद, स्विफ्ट से भी बाहर कर दिया गया था.

जोहान्सबर्ग में 2023 ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में, ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लूला दा सिल्वा ने कहा था कि “एक नई [ब्रिक्स] करेंसी… हमारे पेमेंट ऑप्शंस में इजाफा करेगा और उनकी कमजोरियों के साथ परेशानियों को भी कम करेगा. उसके बाद अक्टूबर 2024 में कज़ान ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा था कि डॉलर का इस्तेमाल एक हथियार के रूप में किया जा रहा है.

क्या भारत भी डॉलर पर निर्भरता कम करना चाहता है?

इस जवाब हैं हां, यूक्रेन वॉर के बीच रूस पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद, अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करने और भारतीय रुपए का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के प्रयास किया. इसके लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 2022 में भारतीय रुपए में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए चालान और पेमेंट की अनुमति दी.

कज़ान ब्रिक्स सम्मेलन में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत “ब्रिक्स देशों के बीच वित्तीय एकीकरण बढ़ाने के प्रयासों का स्वागत करता है”, और “स्थानीय करेंसीज में व्यापार और सुचारू सीमा पार से भुगतान हमारे आर्थिक सहयोग को मजबूत करेगा”.

नवंबर 2024 में, विदेश मंत्री एस जयशंकर ने मुंबई में भारत-रूस के बीच हुई एक बैठक में कहा था कि वर्तमान परिस्थितियों में नेशनल करेंसीज में व्यापार का पारस्परिक समझौता बहुत महत्वपूर्ण है.

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क्या भारत कर रहा है डॉलर को टारगेट?

ऐसा नहीं है. भारत ने रूस, चीन और ब्रिक्स के दूसरे देशों की तरह डॉलर को एक्टिवली टारगेट नहीं किया है. हालांकि, भारत ने इस मुद्दे पर “स्वाभाविक चिंता” जाहिर जरूर की है. अक्टूबर 2024 में, जयशंकर ने स्पष्ट किया था कि हालांकि अमेरिकी नीतियां अक्सर कुछ देशों के साथ व्यापार को जटिल बनाती हैं, और भारत अपने व्यापार हितों की पूर्ति के लिए “समाधान” चाहता है, लेकिन उसने डॉलर को “लक्षित” नहीं किया है या उससे दूर जाने की कोशिश नहीं की है.

देश के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने वाशिंगटन डीसी में एक अमेरिकी थिंक टैंक, कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस में एक सवाल के जवाब में कहा था कि हमने कभी भी सक्रिय रूप से डॉलर को टारगेट नहीं किया है. यह हमारी आर्थिक, राजनीतिक या रणनीतिक नीति का हिस्सा नहीं है. कुछ अन्य लोगों ने भी ऐसा किया होगा. उन्होंने कहा था कि हमारे पास अक्सर ऐसे व्यापार भागीदार होते हैं जिनके पास लेनदेन के लिए डॉलर की कमी होती है. इसलिए, हमें यह तय करना होगा कि क्या उनके साथ लेन-देन छोड़ देना चाहिए या वैकल्पिक समाधान ढूंढना चाहिए जो कारगर हों. डॉलर के प्रति कोई दुर्भावनापूर्ण इरादा नहीं है.

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‘डी-डॉलराइजेशन’ पर आरबीआई की पोजिशन क्या है?

दिसंबर 2024 में, तत्कालीन आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा था कि भारत ‘डी-डॉलराइजेशन’ नहीं कर रहा है, और वोस्ट्रो अकाउंट्स को अनुमति देने और लोकल करेंसी ट्रेड एग्रीमेंट्स में प्रवेश करने जैसे हालिया उपायों का उद्देश्य केवल भारतीय व्यापार पर से रिस्क को कम करना था. दास ने कहा, हालांकि ब्रिक्स देशों ने शेयर करेंसी की संभावना पर चर्चा की है, लेकिन वे किसी निर्णय पर नहीं पहुंचे हैं.

युआन की बढ़ती स्वीकार्यता

भारत सावधानी से कदम बढ़ा रहा है. भारत के डी-डॉलराइजेशन का सपोर्ट ना करने का प्रमुख कारण अमेरिकी डॉलर के लिए चुनौती के रूप में चीनी युआन का उभरना है. भारत ने रूसी तेल आयात के लिए युआन का उपयोग करने का विरोध किया था. जबकि रूस में युआन की स्वीकार्यता बढ़ रही है. रूस पर पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद, जिसमें रूसी विदेशी होल्डिंग्स में 300 बिलियन डॉलर को जब्त करना शामिल है, युआन रूस की सबसे अधिक कारोबार वाली करेंसी बन गई है. रूसी सरकार के अनुसार, दोनों देशों के बीच 90 फीसदी से अधिक ट्रेड एग्रीमेंट्स अब रूबल में होता है.

साथ ही, भारत डॉलर पर अत्यधिक निर्भरता से सावधान है. आरबीआई ने सोने की खरीद बढ़ा दी है और विदेशों में रखे अपने सोने को वापस देश में लाना शुरू कर दिया है. हालाँकि यह कुछ हद तक यूक्रेन में युद्ध के बाद बढ़ी अनिश्चितताओं के कारण है. साथ ही सेकेंडरी सैंक्शंस के डर से ग्लोबल सेंट्रल बैंकों द्वारा सोने की खरीद के अनुरूप है.

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क्या कह रहे हैं जानकार

फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गेनाइजेशन के महानिदेशक और सीईओ अजय सहाय ने द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में कहा था कि स्थानीय करेंसी पहल का समर्थन करते समय, भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि फ्रेमवर्क चीन का असंगत रूप से पक्ष न ले. सहाय ने कहा था कि चीन अमेरिका के खिलाफ गुट का उपयोग करने के लिए एक प्रमुख भूमिका निभाने के लिए बहुत उत्सुक है, हालांकि भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका अमेरिका के साथ काम करने और बातचीत के माध्यम से मतभेदों को असानी से सुलझा सकते हैं.

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