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बीजेपी ने राजस्थान में पूर्व सीएम वसुंधरा राजे को किसी कमेटी में जगह नहीं दी है. गुरुवार को स्टेट इलेक्शन मैनेजमेंट और मेनिफेस्टो कमेटी के गठन में वसुंधरा के नाम नहीं होने से प्रदेश की राजनीति में हलचल तेज हो गई है. बीजेपी ने प्रदेश उपाध्यक्ष नारायण पंचारिया को चुनाव प्रबंधन समिति और केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल को स्टेट मेनिफेस्टो कमेटी का संयोजक बनाया है. जाहिर है वसुंधरा को लेकर कयासों का बाजार गरम हो गया है और उन्हें कैंपेन कमेटी में संयोजक या अध्यक्ष पद दिया जाएगा या नहीं इसपर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं.कैंपेन कमेटी का अध्यक्ष ही सामान्य तौर पर पार्टी का चेहरा होता है. इसलिए राजस्थान की राजनीति में कैंपेन कमेटी की घोषणा को लेकर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं. दरअसल वसुंधरा राजे मोदी और शाह के युग में भी अपने तेवर के लिए जानी जाती हैं. वसुंधरा राजस्थान की दो बार सीएम रह चुकी हैं और कोई भी बीजेपी का नेता उनके मुकाबले लोकप्रियता में सामने नजर नहीं आता है. यही वजह है कि शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ वसुंधरा के समर्थक वसुंधरा को नेतृत्व नहीं दिए जाने को लेकर केन्द्रीय नेतृत्व को चुनौती देने की हिमाकत कर बैठते हैं. हाल के दिनों में वसुंधरा राजे के करीबी समझे जाने वाले विधायक देवीसिंह भाटी राज्य में वसुंधरा को चेहरा नहीं बनाने को लेकर केन्द्रीय नेतृत्व के खिलाफ बयान दे चुके हैं. विधायक देवीसिंह भाटी ने प्रदेश बीजेपी का नेतृत्व वसुंधरा को नहीं सौंपे जाने पर तीसरे मोर्चे बनाने की बात कही हैं.
वसुंधरा का तल्ख तेवर विरोधियों पर पड़ रहा भारी
वसुंधरा के तल्ख तेवर की चर्चा प्रदेश में आम है, लेकिन जनता पर मजबूत पकड़ विरोधियों पर ही नहीं बल्कि पार्टी के भीतर भी विरोधियों पर भारी पड़ी है. कहा जाता है कि साल 2018 में तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से भी वसुंधरा राजे लोहा ले चुकी हैं. दरअसल अमित शाह केन्द्रीय राज्य मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत को राजस्थान का प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त करना चाहते थे लेकिन वसुंधरा समर्थक 20 से ज्यादा विधायकों और मंत्रियों ने केन्द्रीय नेतृत्व पर दबाव बनाकर ऐसा करने से रोक दिया था. वसुंधरा समर्थकों गजेन्द्र सिंह शेखावत को लेकर दलील दी थी कि शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने से जाट मतदाता नाराज हो सकते हैं. इसलिए केन्द्रीय नेतृत्व को वसुंधरा की मांग के सामने झुकना पड़ा था.
2020 में जाते-जाते बच गई थी गहलोत की सरकार
वसुंधरा की मर्जी के खिलाफ राजस्थान में कोई भी गतिविधियां हुई हैं तो वसुंधरा अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रही हैं. कहा जाता है कि बीजेपी का ऑपरेशन लोटस साल 2020 में वसुंधरा राजे की वजह से ही राजस्थान में फेल हो गया था. कांग्रेस नेता सचिन पायलट अशोक गहलौत से नाराज होकर अपने विधायकों के साथ दिल्ली का रुख कर चुके थे लेकिन वसुंधरा राजे की मेहरबानी की वजह से गहलौत की सरकार जाते जाते बच गई थी.
अशोक गहलौत इस बात का जिक्र एक बार सार्वजनिक तौर पर कर चुके हैं लेकिन बाद में गहलौत अपने ही बयान से पलट गए हैं. ज़ाहिर है वसुंधरा राजस्थान में केन्द्रीय नेतृत्व की दखलंदाजी का विरोध साल 2020 में सरकार में न रहकर भी कर चुकी हैं और केन्द्रीय नेतृत्व को अपनी ताकत का परिचय करा चुकी हैं.
वसुंधरा सरेंडर करने में नहीं बल्कि कराने में यकीन रखती हैं?
चंद महीने पहले महीने वसुंधरा राजे के जन्म दिन पर पार्टी का कार्यक्रम रखा गया था. लेकिन बीजेपी के ज्यादातक विधायक पार्टी के कार्यक्रम में हिस्सा न लेकर महारानी के जन्म दिन को मनाने वसुंधरा के पैतृक आवास पर पहुंच चुके थे. कहा जाता है कि राजस्थान के प्रभारी अरुण सिंह को लाचार होकर पार्टी का तय कार्यक्रम छोड़कर वसुंधरा के जन्मदिन पर शिरकत करना पड़ा था. दरअसल अरुण सिंह राज्य में वसुंधरा के बागी होने का मैसेज देना नहीं चाहते थे. इसलिए केन्द्रीय नेतृत्व के इशारे पर अरुण सिंह ने मौके को भांपा और वसुंधरा के जन्म दिन में शामिल होकर बीजेपी को एकजुट बताने की चेष्टा की. जाहिर है वसुंधरा राजे समय-समय पर केन्द्रीय नेतृत्व को चुनौती पेश करती रही हैं.ऐसा वसुंधरा राजे ने राजनाथ सिंह के साथ भी किया था ऐसा कहा जाता है. राजनाथ सिंह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर राजस्थान के बीजेपी अध्यक्ष को बदलना चाहते थे, लेकिन तत्कालीन सीएम वसुंधरा राजे को ये कतई पसंद नहीं था. वसुंधरा ये साफ मैसेज दे चुकी थीं कि राजस्थान में उनकी मर्जी के खिलाफ बीजेपी कोई कदम नहीं उठाएगी, लेकिन राजनाथ सिंह बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष वसुंधरा के बेहद खास कहे जाने वाले महेश चंद शर्मा को राज्य की पार्टी इकाई के अध्यक्ष पद से हटाने का फरमान सुना दिया था.
उस समय राजस्थान के बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर ओम प्रकाश माथुर को चुना गया था. कहा जाता है कि वसुंधरा राजे इस बात से इतनी नाराज थीं कि उन्होंने अपने ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के फोन तक को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था. जाहिर है वसुंधरा अभी ही नहीं पहले भी केन्द्रीय नेतृत्व से लोहा लेती रही हैं. इसलिए केन्द्रीय नेतृत्व वसुंधरा को लेकर कभी भी सहज नहीं रहा है.
बीजेपी के लिए वसुंधरा वरदान हैं या अभिशाप ?
पिछले चुनाव में बीजेपी राजस्थान में हार गई थी. उस चुनाव में लोगों का गुस्सा महारानी के प्रति साफ तौर पर दिखा था, लेकिन अभी भी महारानी के विकल्प के तौर पर बीजेपी किसी लोकल नेता को खड़ा नहीं कर पाई है. राजस्थान में बीजेपी नेताओं की लंबी फौज है जिनमें सतीश पूनिया, ओम बिड़ला, राजेंद्र राठोड़, गुलाबचंद कटारिया, गजेंद्रसिंह शेखावत, अर्जुन मेघवाल, राज्यवर्द्धन राठोड़ और ओम माथुर शामिल हैं. लेकिन दिवंगत नेता भैरो सिंह शेखावत के बाद शायद ही कोई नेता वसुंधरा राजे के कद के बराबर मजबूती से खड़ा होने का दम पूरे राजस्थान में रखता है. वसुंधरा की यही मजबूती पार्टी के लिए वरदान भी है और अभिशाप भी.
अश्विनी वैष्णव का नाम भी उछाला गया था
पार्टी के लिए वसुंधरा से इतर सोचना आसान नहीं है. हाल के दिनों में अश्वनी वैष्णव का नाम तेजी से उछाला जा रहा है. अश्वनी वैष्णव ओबीसी समाज से आते हैं. इसलिए उन्हें प्रोजेक्ट करने की बात दबी जुबान में होती रही है. लेकिन पिछले दिनों में राज्य में सीटें जीतने को लेकर पीएम और सांसदों की मुलाकात में जिस तरह वसुंधरा राजे को बुलाया गया था उससे वसुंधरा राजे की राजस्थान की राजनीति में मजबूत पकड़ का अहसास दिल्ली के नेताओं को भी अच्छी तरह हो गया था.
राजस्थान में लोकप्रियता के मामले में वसुंधरा आगे
राजस्थान की राजनीति जाट, राजपूत, ब्राह्मण, गुर्जर और मीणा जैसी जातियों के इर्द गिर्द घूमती है. जातियों की इस जकड़न में सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में वसुंधरा राजे बीजेपी में सबसे आगे नजर आती हैं. राज्य के सभी इलाकों और जातियों में राजे की जनाधार का तोड़ बीजेपी के पास अब तक दिखाई नहीं पड़ा है. इसलिए उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड या उड़ीसा की तरह राजस्थान की राजनीति में केन्द्रीय नेतृत्व हावी नहीं हो सका है. यही वजह है कि बीजेपी राज्य में दूसरे चेहरे को प्रोजेक्ट करने से पहले हजार बार सोच रही है इसलिए अपने तुरुप के इक्के को ही सामने रखकर चुनाव के मैदान में उतरने की योजना पर काम कर रही हैं.