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राजस्थान में विधानसभा चुनाव की सियासी तपिश गर्म है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए राजनीतिक बिसात बिछाने में जुटे हैं, लेकिन राजस्थान के विश्वविद्यालय और कॉलेज के छात्र संघ चुनावों पर रोक लगा दी है. गहलोत सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति और लिंगदोह कमेटी की शर्तों के पालन न होने का तर्क दिया है. चुनावी साल में छात्र संघ चुनाव पर लगी रोक को विधानसभा चुनाव से जोड़कर देख जा रहा है, क्योंकि इसकी वाजिब वजह भी है और विधानसभा चुनाव से जुड़ा सियासी कनेक्शन भी है. राजस्थान विश्वविद्यालय का चुनाव जीतने वाली पार्टी के हाथों में राजस्थान की सत्ता मिलती है. विश्वविद्यालय और कॉलेजों में छात्रसंघ के चुनाव में अखिल भारती विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और कांग्रेस की एनएसयूआई पूरे दमखम के साथ किस्मत आजमाते हैं. एबीवीपी के नेता ही बाद में बीजेपी में सियासत करते नजर आते हैं तो एनएसयूआई के नेता कांग्रेस में सियासी बुलंदी को छूते हैं. एबीवीपी और एनएसयूआई दोनों ही राजस्थान के विश्वविद्यालयों में होने वाले छात्रसंघ का चुनाव पूरे जोश के साथ लड़ते हैं. राजस्थान की मौजूदा सियासत में कई ऐसे नेता हैं, जो छात्र राजनीति से आए हैं. इसीलिए राजस्थान में छात्र संघ चुनाव पर रोक लगाए जाने को लेकर सियासत गर्मा गई है, जिसके पीछे का मकसद क्या है? राजस्थान की राजनीति में छात्रसंघ का चुनाव का एक ऐसा संयोग है, जो सूबे में सरकार बनने और बिगड़ने से जुड़ा हुआ है. बीते कुछ सालों के छात्रसंघ के चुनाव और उसी साल हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे को देखें तो अजीब संयोग दिखेगा. राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में जब-जब एबीवीपी को जीत मिली, तब-तब कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में बहुमत नहीं मिला है. राजस्थान में पिछले दो दशकों का सियासी संयोग यही रहा है.
छात्रसंघ चुनाव का सियासी कनेक्शन
साल 2003 में राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में एबीवीपी के प्रत्याशी जीतेंद्र मीणा अध्यक्ष चुने गए थे. उसी साल विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस को करारी मात खानी पड़ी थी. 2003 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 120 सीट और कांग्रेस को महज 56 सीटों से संतोष करना पड़ा था. इस तरह कांग्रेस सत्ता से महरूम रह गई थी.
जब चुनाव हुए तब बदला राजनीति का समीकरण
साल 2013 में राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का चुनाव में एबीवीपी के कानाराम जाट अध्यक्ष चुने गए थे. उसी साल राजस्थान विधानसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस को बुरी तरह शिकस्त मिली थी. बीजेपी ने रिकार्ड 163 सीटें जीतने में कामयाब रही तो कांग्रेस को 21 सीटों से संतोष करना पड़ा. इसके बाद साल 2018 के छात्रसंघ चुनाव में जब निर्दलीय विनोद जाखड़ अध्यक्ष बने तो कांग्रेस जीतकर सबसे बड़ी पार्टी तो बनी, लेकिन बहुमत के आकड़े से पीछे रह गई थी. कांग्रेस ने बसपा विधायकों के समर्थन जुटाकर सरकार बनाया था.
कांग्रेस को सियासी डर तो नहीं सता रहा
कांग्रेस विधानसभा चुनाव से पहले किसी तरह की कोई जोखिम नहीं लेना चाहती है. छात्र संघ के चुनाव में अगर कांग्रेस के एनएसयूआई को हार मिलती है तो उसका सियासी प्रभाव विधानसभा चुनाव पर भी पड़ सकता है. बीजेपी इसे चुनाव में सत्ता विरोधी लहर के तौर पर गहलोत सरकार के खिलाफ इस्तेमाल कर सकती है. बीजेपी इस बात को लेकर यह कहना शुरू कर दिया है कि गहलोत सरकार को छात्रसंघ चुनाव में हार का खतरा नजर आ रहा है, जिसके चलते चुनाव नहीं करा रहे हैं.
क्या कहते हैं छात्रसंघ चुनाव के आंकड़े?
बता दें कि पिछले साल राजस्थान में विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव के नतीजे देखें तो कांग्रेस के खिलाफ थे और बीजेपी के पक्ष में. राज्य के कुल 17 विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के चुनाव हुए थे, जिनमें से 9 विश्वविद्यालय में निर्दलीय प्रत्याशी अध्यक्ष चुने गए थे. बीजेपी के छात्र संगठन एबीवीपी ने 6 विश्वविद्यालय में छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए थे और कांग्रेस की एनएसयूआई महज दो विश्वविद्यालय में ही अपना अध्यक्ष बना सकी थी. ऐसे में अगर कहीं इस बार के चुनाव में भी एनएसयूआई के पक्ष में ऐसे नतीजे आते तो उसका असर कांग्रेस के पर पड़ सकता है. बीजेपी इसे गहलोत सरकार के खिलाफ बनाने का मौका मिल सकता है. ऐसे में कांग्रेस ने छात्रसंघ पर रोक लगाकर इस राजनीति पर ही विराम लगा दिया है?